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क्या ऐसे ही चलेंगी ट्रेनें?-कल्याण कुमार, बरेली

kalyan
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क्या ऐसे ही चलेंगी ट्रेनें?
बात १५ मई २०१० की है। मुझे दिल्ली में अपने एक निकटतम रिश्तेदार के यहां गृहप्रवेश के कार्यक्रम में भाग लेना था। चूंकि उनकी उम्र अधिक थी इसलिए वह चाहते थे कि गृहप्रवेश के लिए धार्मिक कार्यों की पूर्णाहुति मेरी ही अगुवाई में हो। मुझे हर हाल में १६ मई की सुबह आठ बजे तक नजफगढ़ की कश्मीरी कॉलोनी पहुंचना था। यही वजह थी कि मैंने श्रमजीवी एक्सप्रेस से दिल्ली जाना तय किया था। बरेली से यह ट्रेन रात १२.१५ बजे दिल्ली के लिए रवाना होती है लेकिन यह आई सुबह ४.१५ बजे और दिल्ली के लिए चली करीब ४.२५ बजे। इस कारण मैं गाजियाबाद स्टेशन ही बामुश्किल १०.०० बजे सुबह पहुंच पाया। ट्रेन की इस लेटलतीफी का नतीजा यह हुआ कि हमारे बुजुर्ग रिश्तेदार को खुद धार्मिक कार्य निपटाने पड़े क्योंकि उनके घर मैं करीब २ बजे तक पहुंच पाया। इस दौरान कितनी बार उनकी सांस फूली और वह कितना परेशान हुए, इसे बयान नहीं किया जा सकता। यह रेलवे महकमे का समय कुप्रबंधन ही था जिसने परिवार के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति के सामने मुझे शर्मसार कर दिया। ममता दीदी प्लीज अपने अफसरों को समझाएं कि समय पर ट्रेन न चलने से लोगों को कितनी परेशानी होती। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन समेत तमाम स्थानों पर भगदड़ मच रही है तो समय का कुप्रबंधन इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है। प्लेटफार्म टिकटों की बिक्री पर रोक लगाने भर से यह समस्या खत्म नहीं होगी। ट्रेनें लेट होंगी, प्लेटफार्म पर यात्रियों का दबाव उतना ही बढ़ेगा। १५ मई २०१० को बरेली स्टेशन पर भी हजारों यात्री मौजूद थे क्योंकि लगभग सभी ट्रेनें चार घंटे से भी ज्यादा देरी से चल रही थीं। रेलवे को दिल्ली के मेट्रो ट्रेनों के समय प्रबंधन से सीख लेनी चाहिए। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब मेट्रो से चलने वालों की प्लानिंग चौपट हुई हो। दुनिया समय का महत्व समझ रही है, रेल विभाग को भी चाहिए कि वह इसकी अहमियत जाने और लोगों का भरोसा जीते।

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