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चिदंबरम साहब पहले अपना चश्मा बदलें-कल्याण कुमार, बरेली

kalyan
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छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में दो बड़े नरसंहार, फिर केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम की बातचीत की पेशकश ठुकराकर नक्सलियों ने साफ संकेत दे दिया है कि सरकार पहले अपना चश्मा बदले। अब यह तो साफ ही हो गया है कि नक्सलियों को सरकार पर भरोसा नहीं है। वे मानकर चल रहे हैं कि सरकार खाकी का इस्तेमाल नहीं रोकेगी। उनकी असली जंग तो खाकी की व्यवस्था के खिलाफ ही है। नक्सलवाद के इतिहास में जाएं तो साफ पता चलता है कि उनके निशाने पर मुख्य रूप से सरकारी मशीनरी और पुलिस बल ही रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों? क्यों खाकी उन्हें खटकती है? सरकारी तंत्र से उन्हें चिढ़ क्यों है? सरकार को इन्हीं बिंदुओं को ध्यान में रखकर काम करना होगा, तभी देश अमन की राह पर मजबूती से आगे बढ़ सकेगा। नक्सलवाद ने जो स्वरूप अख्तियार किया है, वह आतंकवाद से कहीं ज्यादा बीभत्स और लोकतंत्र को चुनौती देने वाला है।
सरकार को यह मान लेना चाहिए कि पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था में पारदर्शिता का घोर अभाव है ही, भाईचारा के भाव और लोकसेवा के प्रति समर्पण व ईमानदारी की भी जबरदस्त कमी है। अब सवाल यह उठता है कि व्यवस्थागत इस कोढ़ का इलाज सरकार क्यों नहीं करना चाहती? ऐसा नहीं है कि सरकार पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था की इन खामियों को नहीं जानती। पंजाब और जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद से लेकर पूर्वोत्तर में उग्रवाद की वजह तलाशी गई थी तो खाकी की भूमिका भी सामने आई थी। अनेक ऐसी घटनाओं से मुंह जला लेने के बाद भी सरकार क्यों फिर से मुंह जलाने के लिए आतुर है, यह समझ से परे है। क्यों नहीं वह नौकरशाही को लोकसेवा के मानकों पर कसना चाह रही है? शायद इसलिए कि इसी नौकरशाही के कंधे पर आजादी के बाद से ही सरकारें चलती रही हैं। व्यवस्था में बिगाड़ या सुधार देखने का सरकारी चश्मा यही नौकरशाही है। यानी इस चश्मे को निकाल फेंकने का सीधा सा मतलब यही निकलता है कि सरकार अंधी हो जाएगी क्योंकि उसका सारा होमवर्क इसी नौकरशाही के बूते तैयार होता है। पिछले ६०-६५ सालों में नगा समस्या से लेकर आज की नक्सल समस्या का पुख्ता इलाज नहीं हो सका तो इसके लिए तो नौकरशाही को ही जिम्मेदार माना जाना चाहिए। वो बड़े बाबू हैं, बेशक गुदड़ी से निकलकर गए हों लेकिन अफसर का चोला पहनते ही उनका नजरिया भी बदल जाता है। वे अंग्रेजों के अंदाज में चलना, फिरना, रहना पसंद करने लगते हैं। गांव का गरीब बेशक उन्हीं की जाति का हो लेकिन उनसे वे दूरी बनाकर चलना पसंद करने लगते हैं। उसी थाल में मुंह मारने लगते हैं जिसका खाना खाने से समाज में अभी भी बड़े पैमाने पर दूरियां बनी हुई हैं। नौकरियों में आरक्षण व्यवस्था लागू करने के पीछे एक सोच यह भी काम कर रही थी कि दलित समाज से गए लोग अपने लोगों के विकास की बात गंभीरता से सोचेंगे लेकिन एक सीमा तक ही इस सोच पर काम हुआ। इतना ही नहीं ऐसे लोगों ने अपना अलग समूह भी बना लिया जिससे इन्हीं बिरादरियों के पिछली पंक्ति में खड़े लोग अपनी जगह से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सके। द्रोपदी की तरह उनका चीरहरण होता रहा और उनके ही भाई-बंधु आंख पसारकर सबकुछ देखते रहे। किसी ने उफ तक न की। फिर तो व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद होनी ही थी। आखिर इस घाव से मवाद निकलना ही था। नक्सलवाद यही मवाद है। इसे सरकार समझे। समाज के दलितों और वंचितों की संरक्षक बनकर सामने आए। उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए समाज कल्याण के नाम पर आवंटित करोड़ों रुपये उन तक पहुंचाए। जरूरत पड़ने पर उन अफसरों की जेब से यह पैसा निकाले जो हजारों की तनख्वाह में करोड़ों की सुविधा भोग रहे हैं। भ्रष्टाचार को जड़मूल से उखाड़ने के लिए उन बड़े अफसरों के खिलाफ सख्त कदम उठाए जो गरीबों के विकास और सामाजिक न्याय की राह में रोड़ा बन गए। उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे, जो गरीबी दूर करने के नाम पर योजनाओं के ठेकेदार बनकर अपनी ही गरीबी दूर करने में लगे हुए हैं। इसके लिए जनप्रतिनिधियों को मुंह छिपाने के बजाय जंगलों और गांवों में घूम-घूमकर लोगों का विश्वास जीतना होगा। गरीबों और दलितों के लिए तय एक-एक नया पैसा उनतक पहुंचाना होगा और अफसरों को दो टूक समझाना होगा कि लोकसेवक की हैसियत से ही वे काम करें। चिदंबरम साहब नौकरशाही, खाकीशाही का यह मुलम्मा उखाड़ फेंकने का जज्बा पहले दिखाइये, फिर देखिये एक सफल वित्तमंत्री की तरह एक सफल गृहमंत्री का तमगा भी आपसे दूर नहीं रहेगा।

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