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एक पत्थर जरा तबीयत से उछालो यारों…

kalyan
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मैंने २० मई को एक लेख लिखा, ‘ये तो जनविद्रोह है’। इस पर कुछ प्रतिक्रियाएं आई हैं। इस बात पर जोर दिया गया है कि माओवादियों के खिलाफ सख्ती होनी चाहिए। मैं भी इस बात से सहमत हूं कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत होनी चाहिए। माओवाद, आतंकवाद, अलगाववाद जैसी तमाम विचारधाराओं की आंच इस तक नहीं पहुंचनी चाहिए। देशविरोधी ऐसे तत्वों का सफाया होना चाहिए लेकिन इसकी मोडस ऑपरेंडी क्या हो? कैसे पहचान करें कि वह माओवादी है, आतंकवादी है, अलगाववादी है, पर भारतीय नहीं? सुरक्षा जांच की तह में जाएं तो पता चलता है अनगिनत मामलों में दोषी तो खुलेआम घूम रहे होते हैं लेकिन निर्दोष की बलि चढ़ जाती है। ऐसे ही परिवारों को जब न्याय नहीं मिलता है तो उनमें व्यवस्था के प्रति नफरत पैदा हो जाती है। क्या माओवादी इतने धनवान थे या हैं या फिर उनकी थ्योरी इतनी मजबूत है कि देश के २३३ जिलों में कुछ सालों में ही फैल गए और हमारा लोकतांत्रिक सिद्धांत कमजोर पड़ गया? क्या वे इतनी बड़ी संख्या में इस देश में मौजूद हैं कि लोग आतंकित होकर उनके बंधक बन गए? मैंने अपने पिछले लेखों में अफसरशाही की निरंकुशता की ओर ही इशारा किया है। यह बताने की कोशिश की है कि कानून के निर्माताओं यानी जनप्रतिनिधियों को नौकरशाही द्वारा भेजी गई फाइलों का अवलोकन करने के अलावा क्षेत्र में घूम-घूमकर वास्तविकता की भी जांच करनी चाहिए। आम आदमी ने उन्हें लोकसभा या विधानसभा इसलिए नहीं भेजा है कि उसे अपने और अपने समाज के विकास के लिए अफसरों के पांव धोने पड़ें। पुलिस सुधार, प्रशासनिक कार्यों में पारदर्शिता और विकास योजनाओं को घर-घर पहुंचाने की चर्चा वातानुकूलित कमरों में खूब हो रही है लेकिन कोई गांधी, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण बनने के लिए तैयार नहीं है। हर कोई वीवीआईपी बनकर हर साल व्यक्तिगत सुरक्षा के नाम पर हमारी मेहनत की कमाई में करोड़ों रुपये की सेंध लगा रहा है। हालत तो यह हो गई है कि अपने ही चुने हुए प्रतिनिधि से मिलने के लिए लोगों को अब कई-कई दिन इंतजार करना पड़ता है। इन नेताओं की ड्योढ़ियों पर बाट जोहते कई की सांसें भी उखड़ गईं लेकिन इनकी तरफ दया की दृष्टि नहीं पड़ी।
दुष्टों का दमन अवश्य होना चाहिए लेकिन इसके लिए गहन रणनीति की आवश्यकता है। हमें उन गरीबों और आदिवासियों का हर हाल में ख्याल रखना होगा जो समानांतर व्यवस्था के शिकार हो गए हैं। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में पिछले करीब दो वर्षों में माओवादियों ने मां, माटी और मानुष के नारे के जरिये अपना गढ़ बना लिया है। इसी नारे से सवाल निकलता है कि क्या आजादी के बाद नौकरशाही इन क्षेत्रों में बेटी-बहुओं की इज्जत की सुरक्षा नहीं कर पाई? भूमि सुधार और विकास की तमाम योजनाओं को ईमानदारी से लागू नहीं कर पाई? बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करने में नाकाम रही या ग्रामीण विकास और जनजातीय विकास के कार्यक्रमों को धरातल पर लाने में विफल रही? सामाजिक न्याय दिलाने का वादा करने वाली सरकारों के सामने यह कसौटी है। अब चर्चाओं में खराब करने लायक समय भी नहीं बचा है। तथाकथित माओवादियों और लोकतंत्र के दुश्मनों का सफाया करना है तो इन गरीबों, आदिवासियों के लिए उसी तरह काम करना होगा जिस तरह डॉ. राममनोहर लोहिया, कर्पूरी ठाकुर, लाल बहादुर शास्त्री, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, दीनदयाल उपाध्याय और महात्मा गांधी ने किया था। यह लोकतंत्र तभी फलेगा-फूलेगा जब हर बगिया लहलहाएगी और यह संभव है जनमानस के लिए तप और योग से। सरकार में बैठे लोग एक बार तो नौकरशाही का चोला उतारकर इन गरीबों की हालत देखें। देखिये कैसे माओवाद का यह भूत गायब हो जाता है।

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