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यह तो जनविद्रोह है
कल्याण कुमार
नक्सलियों के खिलाफ देश के हर कोने से एक आवाज उठ रही है कि उनके खिलाफ अब सैन्य कार्रवाई की जाए, वायुसेना का इस्तेमाल किया जाए और उन्हें नेस्तनाबूद करने के लिए तमाम सख्त उपाय किए जाएं। अब सवाल उठता है कि सख्ती से कहीं कोई जनविद्रोह काबू हुआ है? फ्रांस की क्रांति के समय एक उक्ति प्रचलित हुई थी–रिवॉल्यूशन कैन बी सपरेस्ड बट कैननॉट बी टर्मिनेटेड–यानी बगावत को दबाया तो जा सकता है, उसे खत्म नहीं किया जा सकता–कहने का आशय यह है कि किसी भी तरह की अशांति का इलाज हथियार नहीं हैं। प्रेम, विश्वास और सहयोग का माहौल तैयार कर ही बगावत का शमन किया जा सकता है। अब यह सरकार की नीयत पर निर्भर करता है कि वह इस समस्या का एलोपैथी इलाज कर सिर्फ दबाने का इरादा रखती है या होम्योपैथी पद्धति के जरिये असंतोष की चिंगारी सदा के लिए बुझाना चाहती है। नक्सली देश के एक-दो नहीं बल्कि २३३ जिलों में अपना प्रभाव फैला चुके हैं। यह बात खुद गृहमंत्री पी. चिदंबरम मान चुके हैं। कम से कम सात राज्य इस समस्या से जूझ रहे हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में इनका शिकंजा कसता जा रहा है। सरकार ने सही नजरिये से इस समस्या की ओर नहीं देखा तो आने वाले दिनों में उसे बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। इन नक्सलियों से निपटना इसलिए भी आसान नहीं है क्योंकि मुख्यधारा के अनेक नेता इनके प्रणेता भी हैं। कोटेश्वर राव यानी किशन जी, कोबाद घंडी और ऐसे ही अनेक पढ़े-लिखे लोग इनके दिशा-निर्देशक हैं। शायद यही वजह है कि इस समस्या से जूझ रहे अनेक राज्य खुलकर इनके खिलाफ सामने नहीं आ रहे हैं। पुलिस और अर्धसैनिक बलों के लिए ये नक्सली बेशक अनजान हों, लेकिन स्थानीय नेता और राजनैतिक दल इन्हें अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं।
ऐसा नहीं है कि नक्सल प्रभावित जिलों में सरकारी कर्मचारी नहीं काम कर रहे हैं। बड़ी संख्या में काम कर रहे इन कर्मचारियों को ऐसी कोई सुरक्षा भी नहीं दी गई है जिससे वे नक्सलियों के हमले का मुकाबला कर सकें। वास्तव में इन कर्मचारियों ने नक्सलियों की समानांतर व्यवस्था से एक तरह का समझौता कर लिया है। यह समझौता पैसे से लेकर आपसी समझ और सामाजिक समन्वय का भी हो सकता है। ऐसे मामले भी कम ही सामने आए हैं जब नक्सलियों ने गैर-पुलिस और गैर-प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ कोई कदम उठाया हो। जब बड़ी संख्या में अन्य विभागों के लोग इन क्षेत्रों में काम कर सकते हैं तो पुलिस, प्रशासन और अर्धसैनिक बलों को ही इन क्षेत्रों में क्यों दिक्कत है? यही वह खाई है, जो दिन-ब-दिन चौड़ी होती जा रही है। इसे ही पाटना सरकार के लिए चुनौती है। आखिर क्यों नफरत हो गई है खाकी से? काफी पहले मैंने सुना था कि बड़ी संख्या में अधिकारी बस्तर और छोटा नागपुर के आदिवासी बहुल इलाके में नौकरी करना चाहते थे। तब वहां नक्सलवाद का बीज भी नहीं डला था। मुझे लगता था कि ये अधिकारी वहां आदिवासियों, गरीबों की सेवा करने के इरादे से जाना चाहते थे। कई अधिकारी ऐसे होंगे भी लेकिन कई ऐसे थे जिनकी इच्छा गरीबों की योजनाओं से जेब भरने और तनसुख की थी। शायद अधिकारियों का लंबे समय तक यही शोषण आदिवासियों के दिल में गहरे पैठ गया है और सरकार के प्रति उनमें अविश्वास की भावना पैदा हो गई है। सरकार को नौकरशाही का चोला उतारकर खुद इस हवनकुंड में कूदना होगा। कोई तो गांधी, कोई तो विनोबा और कोई तो जयप्रकाश होगा ही जो लोकतांत्रिक व्यवस्था से असंतुष्ट इन गरीब आदिवासियों के घाव भरेगा। हमें इंतजार है ऐसे ही एक जयप्रकाश नारायण का जो बिहार के होते हुए भी चंबल के डकैतों के चहेते बन गए थे। देखें किस नेता में यह दमखम दिखाने का साहस।
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