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नक्सलवाद की समस्या पर मैंने जो कुछ लेख लिखे, उससे डॉ. एस. शंकर सिंह समेत कई लोग असहमत नजर आते हैं। मैंने अपने लेखों में कुल मिलाकर आर्थिक विषमताओं और इसके लिए जिम्मेदार नौकरशाही पर ही टिप्पणी की है। मेरा मकसद माओवादी हिंसा और उसके सिद्धांतों को समर्थन देना कतई नहीं है। मैं उनके हिंसक विचारों का विरोधी भी हूं लेकिन जो गरीब उनके चंगुल में फंस चुके हैं, उन्हें मुख्यधारा में लाने की मेरी मुहिम जारी रहेगी। मैंने तो सिर्फ इस बात पर जोर दिया है कि सरकार को अपना दायित्व निभाना चाहिए, उसे अपनी कार्यप्रणाली बदलनी चाहिए क्योंकि नागरिकों की सुरक्षा, आजीविका की जिम्मदारी उसी की है, न कि कुछ गुंडों या माओवादियों की। संविधान के तहत प्रदत्त अधिकारों की रक्षा का जिम्मा सरकार का ही है। माओवादी हिंसा में लिप्त हैं तो उसे रोकने की जिम्मेदारी भी उसकी है। मैंने अपने लेख में यह कब लिखा कि माओवादी हिंसक तत्वों का सफाया न किया जाए। मैंने सिर्फ यह कहा है कि मक्खियां गुड़ पर बैठ रही हैं तो अपने गुड़ की रक्षा पहले करो। गुड़ बच जाएगा तो गंदगी फैलाने वाली मक्खियों का सफाया करने में आसानी होगी। लेकिन सरकार की लचर व्यवस्था के कारण मक्खियां गुड़ ही चट करती जा रही हैं और हम आंखें पसारे देखने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे। अब आप ही बताएं, दर्जनों वारदात के बावजूद क्या गरीबों और आदिवासियों को माओवादियों के चंगुल से निकालने का कोई सरकारी संकल्प आपको दिखाई दे रहा है? बस, बहस-मुबाहिस चल रही है। अगर इसी तरह कागजों में राष्ट्रवाद और लोकतंत्र की चीख मचती रही तो वह दिन दूर नहीं जब गांवों से निकलकर नगरों और महानगरों में भी ये माओवादी गरीबों पर अपना शिकंजा कसते नजर आएंगे। वन अधिकार कानून बने करीब चार साल हो गए हैं लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि किसी राज्य में यह आधा-अधूरा लागू हुआ है तो कहीं वन विभाग ने ऐसा पच्चर फंसा दिया है कि आदिवासी समाज अभी भी इसके कार्यान्वयन की उम्मीद ही लगाए बैठा है। जिन राज्यों में यह कानून लागू हुआ है, वहां अभी तक पंचायत या जिला स्तर पर समितियां ही गठित नहीं हो पाई हैं। इसके अलावा भूमि हदबंदी कानून भी कागजों की ही शोभा बढ़ा रहा है। कई राज्य इसे आजतक धरातल पर नहीं उतार पाए। यानी अभी भी दबंगों का ही शासन चल रहा है। खुद सरकार के बड़े नुमाइंदे इस बात से सहमत हैं कि आदिवासियों और गरीबों को उनके हक-हुकूक दे दिए जाएं तो माओवादियों पर अंकुश लग जाएगा। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में हुए नरसंहारों की जांच कर रही बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक ई.एन. राममोहन की कमेटी ने भी माना है कि सिर्फ उग्रवाद विरोधी अभियानों से नक्सलवाद खत्म नहीं होगा। वन और भूमि अधिकार इन क्षेत्रों के महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। भूमि हदबंदी कानून लागू कर और आदिवासियों को अवसर प्रदान कर इस मसले को बहुत हद तक सुलझाया जा सकता है। ई. एन. राममोहन ने दिल्ली में उस मौके पर यह बयान दिया, जब केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम भी मौजूद थे। मौका था बीएसएफ के एक कार्यक्रम का। अगर भारत तो वास्तव में आतंकवाद, नक्सलवाद और विघनटकारी तत्वों से बचाना है तो निश्चित रूप से मजबूर हाथों को मजबूत करना होगा। ऐसा तभी संभव है जब नोबल पुरस्कार हासिल कर चुके अमर्त्य सेन के अर्थशास्त्र को धरातल पर लाया जाए। यानी हर हाथ को काम मिले तो कोई समस्या नहीं रह जाएगी। यह जिम्मेदारी तो सरकार की ही है और उसे ही इसे हंसकर या रोकर पूरा करना है। पेट में रोटी होगी, दिमाग का अंधकार दूर होगा, बच्चे स्कूल जाकर बेहतर भविष्य की उम्मीदें जगाएंगे तो निश्चित रूप से भारत और भारतीयता दोनों की जड़ें इतनी मजबूत हो जाएंगी कि कोई इसे सूंघने की भी हिम्मत नहीं दिखा पाएगा।
कल्याण कुमार
बरेली
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