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आजादी के ६३ साल बाद भी जनता सुशासन के लिए तरस रही है। न तो उसे बुनियादी सुविधाएं मिल पाई हैं, न सुरक्षा की गारंटी और न ही रोजगार के समान अवसर उसे मिल पाए हैं। टॉप से लेकर बॉटम तक बिखराव ही ज्यादा नजर आता है। लक्ष्य तो तय हो जाता है लेकिन अधिकतर बातें कागजों में ही सिमट कर रह जाती हैं। सरकारें रोना रोती हैं कि संसाधन कम पड़ गए, पर्याप्त धन नहीं है, इसी कारण आधा-अधूरा विकास ही हो पा रहा है। गहराई से पड़ताल करें तो सबसे पहले आम आदमी के विकास के लिए सरकारों में संकल्प का ही अभाव साफ नजर आता है। जोड़-तोड़ और दांव-पेंच में ज्यादातर सरकारों का काल पूरा हो जाता है। गठबंधन सरकारों के काल में तो आम आदमी की दुर्दशा कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। खासकर महंगाई के संदर्भ में देखें तो सरकार को नाकामी के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा। बातों-बातों में महंगाई भी धुआं हो गई। एक बानगी देखिये, आम आदमी की रसोई से लेकर घरेलू उपचार में काम आने वाली हल्दी की कीमत प्रति किलो २०० रुपये को भी पार कर गई है। कुछ दिन पहले तक गांवों और कस्बों में इसकी कीमत महज ३० रुपये प्रति किलो थी। सरकार ने खूब हवाबाजी की लेकिन चीनी, चावल, आटा, दाल के मिजाज ठंडे नहीं पड़े। ऐसे में औसतन २० रुपये प्रति दिन कमाने वाली देश की ७७ फीसदी आबादी क्या करेगी? गठबंधन सरकारों में एक बहाना होता है–जिम्मेदारी टालने का बहाना। फलां मंत्री फलां पार्टी का है, कुछ कहा जाए तो समर्थन वापस न ले ले..सरकार ही गिर जाएगी। वह मंत्री भी जिम्मेदार होने के बावजूद सारी जिम्मेदारी सरकार पर टाल देता है। और इस टालमटोल की चक्की में पिस जाती है आम जनता।
कभी-कभार महसूस होता है कि हम लावारिस हैं। हमारी बात कहीं सुनी ही नहीं जा रही। सरकार की तरफ से बयान आता है कि फलां-फलां सामान की कमी है। उत्पादन ही कम हुआ था। अगर उत्पादन कम हुआ होता तो सामान बाजार में होता ही नहीं। कहीं से भी ऐसी शिकायत नहीं आई कि सामान नहीं है। शिकायत तो यह आ रही है कि उसके मनमाफिक दाम वसूले जा रहे हैं। कोई तो होगी मूल्य नियामक संस्था जो इन मुनाफाखोरों पर लगाम लगाए। पर देखिये अनदेखी- मौज काट रहे हैं मुनाफाखोर। कोई भी व्यक्ति इस मुनाफाखोरी की अपने स्तर से जांच कर सकता है। एक बार थोक बाजार में जाइये और फिर खुदरा बाजार की कीमतों से तुलना कीजिए, आपके सामने ही दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। कई सामान तो ऐसे होंगे जिनके दाम में आधे से भी ज्यादा का फर्क आपको नजर जाएगा। तो क्या हम यह मान लें कि खुदरा बाजार पर नियंत्रण में सरकारें खुद को मजबूर पा रही हैं। वास्तव में वह सुशासन की परिभाषा ही भूल गई है। वह मानकर चल रही है कि उसका कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में वह जो कर रही है, जनता को उसपर मुहर लगानी ही पड़ेगी। लोकतंत्र में शासन तो जनता की इच्छा के मुताबिक चलना चाहिए लेकिन यहां तो एक अलग तंत्र ही विकसित होता नजर आ रहा है।
वास्तव में लोकतांत्रिक शासन की कुछ मूलभूत अवधारणाएं होती हैं जिसका पालन संप्रग सरकार को भी करना चाहिए नहीं तो १९७७, १९८७ और २००४ का इतिहास दुहराने में जनता देर नहीं करेगी। सर्वांगीण व संतुलित विकास, शोषणमुक्त समाज, समान अवसर आदि अच्छे शासन के गुण हैं। इसके दायरे में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, नैतिक और राजनैतिक सभी क्षेत्रों के विकास आते हैं। हर नागरिक को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएं देने का दायित्व तो सरकार का है ही लेकिन वह बार-बार इस अग्निपरीक्षा में फेल हो जा रही है। ६३ साल से जारी इस सिलसिले का अंत कब होगा? अधिसंख्य गरीबों को कब बुनियादी सुविधाएं और एक सम्मानित नागरिक की तरह जीने का हक मिलेगा? इस सवाल का जवाब पक्ष और विपक्ष दोनों के पास नहीं है। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि इन बुनियादी सवालों के समाधान का संकल्प भी किसी नेता या राजनैतिक दल के पास नहीं है। तो क्या फिर भगवान कृष्ण को फिर अवतार लेना होगा…
कल्याण कुमार
बरेली
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